Natasha

लाइब्रेरी में जोड़ें

राजा की रानी

गाड़ी पर से आते-आते ही मैंने देखा था कि जेटी¹ और बड़े रास्ते के बीच की भूमि नाना रंग के पदार्थों से लदी हुई है- लाल, काले, भूरे, गेरुए। थोड़ा-सा कुहरा भी छाया हुआ था। ऐसा मालूम हुआ कि बछड़ों का एक झुण्ड शायद चालान किये जाने के लिए बँधा हुआ है। निकट आकर ध्याहन से देखा तो मालूम हुआ कि चालान तो अवश्य होगा; किन्तु, बछडों का नहीं-मनुष्यों का। वे लोग बड़ी-बड़ी-सी गठरियाँ लिये, स्त्री-पुत्रों के हाथ पकड़, सारी रात इसलिए इसी तरह ओस में पड़े रहे हैं कि सुबह तड़के ही सबसे पहले जहाज में घुसकर एक अच्छी-सी जगह पर कब्जा कर लेंगे। अतएव, किसके लिए सम्भव था कि पीछे से आकर इन्हें पार करके जेटी के द्वार तक पहुँच सके? थोड़ी ही देर बाद यह दल जब जागकर खड़ा हो गया तब मैंने देखा कि काबुल के उत्तर से कन्याकुमारी के अन्त तक का कोई भी प्रदेश अपना प्रतिनिधि इस कोयला-घाट पर भेजना नहीं भूला है।

सभी हैं। काली-काली गंजियाँ पहिने हुए चीनियों का दल भी बाद नहीं गया है। मैं भी तो डेक का (जिससे नीचे और कोई दर्जा नहीं उसका) यात्री था : इसलिए, लोगों को परास्त करके अपने बैठने के लिए एक जगह मुझे भी प्राप्त करनी थी। किन्तु इसका खयाल करते ही मेरा सारा शरीर बरफ-सा ठण्डा हो गया। फिर भी, जब जाना ही है और जहाज को छोड़कर और कोई जाने का रास्ता नहीं है, तब जैसे भी हो इन्हीं लोगों का अनुकरण करना कर्त्तव्य है- ऐसा विचार कर मैं अपने मन को जितना ही साहस देने लगा मानो उतना ही वह हिम्मत हारने लगा। जहाज कब आकर किनारे से लगेगा सो जहाज ही जाने। इस बीच में ही ये चौदह-पन्द्रह सौ लोग भेड़ों के झुण्ड की तरह कतारें बाँधकर एकाएक ऑंख उठाकर देखा, खड़े हो गये हैं। एक हिन्दुस्तानी आदमी से मैंने पूछा, “भैया, सब लोग अच्छी तरह से तो बैठे थे- अब एकाएक कतार बाँधकर क्यों खड़े हो गये?'*

¹ जहाँ जहाज ठहरते हैं वह स्थान।

वह बोला, “डगदरी होगी।”

“डगदरी क्या चीज होती है, भाई?”

उस आदमी ने पीछे से आए हुए एक धक्के को सँभालते हुए कुछ झुँझलाहट से कहा, “अरे पिलेग का डगदरी।”

बात को समझना और भी कठिन हो गया। पर, समझूँ चाहे न समझूँ- इतने आदमियों के लिए जो जरूरी है वह मेरे लिए भी होगी। किन्तु किस कौशल से अपने आपको इस झुण्ड में घुसेड़ दूँ, यह एक समस्या ही सामने आकर खड़ी हो गयी। कहीं से घुसने के लिए थोड़ी-सी साँसर है या नहीं, यह खोजते-खोजते देखा कि कुछ दूर पर खिदिरपुर के कितने ही मुसलमान संकुचित भाव से खड़े हुए हैं। यह मैंने स्वदेश-विदेश सभी जगह देखा है कि जो काम लज्जित होने जैसा है, उसमें बंगाली लोग अवश्य लज्जित होते हैं। वे भारत की अन्यान्य जातियों के समान बिना संकोच के धक्का-मुक्की मारा-मारी नहीं कर सकते। इस तरह खड़े होने में जो एक तरह की हीनता है, उसकी शरम के मारे मानो ये सब अपना सिर नीचा कर लेते हैं। ये लोग रंगून में दर्जी का काम करते हैं और अनेक दफे आए-गये हैं। पूछने पर उन्होंने बताया कि यह सब सावधानी, कहीं यहाँ से बर्मा में प्लेग न चली जाय, इसलिए है। डॉक्टर परीक्षा करके पास कर दे तभी जहाज पर चढ़ा जा सकता है। अर्थात् रंगून जाने के लिए जो लोग तैयार हुए हैं, इसके पहले ही जाँच हो जाना चाहिए कि वे प्लेग के रोगी हैं या नहीं। अंग्रेजी राज्य में डॉक्टरों का प्रबल प्रताप है। सुना है, कसाईखाने के यात्रियों को भी अन्दर जाकर जिबह होने का अधिकार प्राप्त करने के लिए इन लोगों का मुँह ताकना पड़ता है। किन्तु, परिस्थिति की दृष्टि से रंगून के यात्रियों के साथ उसकी जो इतनी अधिक समानता है सो उस समय किसने सोची थी।

क्रमश: पिलेग की डगदरी निकट आ पहुँची। पियादे-सहित डॉक्टर साहब दिखाई दिये। उस कतारबन्दी की अवस्था में गर्दन टेढ़ी करके देखने का मौका तो नहीं था; फिर भी, आगे-खड़े हुए साथियों के प्रति किया गया परीक्षा-पद्धति का जितना भी प्रयोग दृष्टिगोचर हुआ, उससे मेरी चिन्ता की सीमा नहीं रही। कायर बंगालियों को छोड़कर ऐसा वहाँ कोई नहीं था जो देह के निम्न भाग के उघाड़े जाने पर भयभीत हो, परन्तु, अपने सामने के साहसी वीर पुरुषों के भी परीक्षा के समय बार-बार चौंक उठते देखकर मैं बुरी तरह शंकित हो उठा। सभी जानते हैं कि प्लेग की बीमारी में शरीर का स्थान-विशेष सूज आया करता है डॉक्टर साहब जिस प्रकार लीला-मात्र से और निर्विकार चित्त से उस सन्देह मूलक स्थान में हाथ डालकर सोजिश टटोलने लगे, उससे काठ के पुतलों को भी आपत्ति होती। किन्तु, भारतवासियों की सभ्यता सनातन है, इसलिए, जैसे भी हो एक दफे चौंककर ये स्थिर हो जाते थे। अगर और कोई जाति होती तो डॉक्टर का हाथ मरोड़े-तोड़े बिना न रहती। सो, चाहे जो हो, 'पास' होना जब अवश्य कर्त्तव्य था, तो फिर, और उपाय ही क्या हो सकता था? यथासमय ऑंखें मींचकर, सारा अंग संकुचित कर- एक तरह से हताश ही होकर, डॉक्टर के हाथ आत्म-समर्पण कर दिया और 'पास' भी हो गया।

इसके बाद जहाज पर चढ़ने की पारी थी। किन्तु, डेक-पैसिंजरों की यह अधिरोहण-क्रिया किस तरह निष्पन्न होती है- बाहर के लोगों के लिए उसकी कल्पना करना भी सम्भव नहीं है। फिर भी, कल-कारखानों में जिन्होंने दाँतवाले चक्रों की प्रक्रिया देखी है, उनके लिए इसका समझाना कुछ-कुछ सम्भव हो सकता है। वे जिस तरह आगे के खिंचाव और पीछे के धक्के से अग्रसर होकर चलते हैं, उसी तरह हमारी यह काबुली- पंजाबी- मारवाड़ी- मद्रासी- मराठा- बंगाली-चीनी- उड़िया गठित सुविपुल सेना केवल पारस्पारिक आकर्षण-विकर्षण के वेग से नीचे जमीन से जहाज के डेक पर बिना जाने ही चढ़ गयी और वह गति वहाँ पर भी नहीं रुकी। सामने की ओर देखा, एक गङ्ढे के मुँह पर सीढ़ी लगी हुई है। जहाज के गर्म-देश में उतरने का यही रास्ता था। नाले के अवरुद्ध मुख को खोल देने पर वृष्टि का संचित जल जिस तरह तीव्र वेग से नीचे गिरता है, ठीक उसी तरह यह दल भी स्थान अधिकृत करने के लिए जीने-मरने के ज्ञान से शून्य होकर नीचे उतरने लगा।

मुझे जहाँ तक याद आता है, मेरी नीचे जाने की इच्छा नहीं थी। पैरों से चलकर भी नहीं उतरा। क्षण भर के लिए मैं बेहोश हो गया था, इसलिए, मेरे इस कथन में यदि कोई सन्देह प्रकट करे, तो शायद कसम खाकर मैं इसे अस्वीकार भी न कर सकूँगा। होश में आने पर देखा कि गर्भ-गृह के मध्यक बहुत दूर पर एक कोने में मैं अकेला खड़ा हूँ। पैरों की ओर निगाह दौड़ाई, तो देखता हूँ कि इसी बीच में, जादू के खेल की तरह पल-भर में ही कम्बल बिछाकर और बॉक्स-पिटारों आदि से घेरकर हर किसी ने अपने-अपने लिए निरापद-स्थान बना लिया है और शान्ति से बैठकर अपने पड़ोसी का परिचय प्राप्त करना शुरू कर दिया है। इतनी देर के बाद, अब कहीं मेरे उस नम्बर वाले कुली ने आकर दर्शन दिया और कहा, “ट्रंक और बिस्तर ऊपर रख आया हूँ, यदि आप कहें तो नीचे ले आऊँ।”

मैंने कहा, “नहीं, बल्कि, किसी तरह यहाँ से उद्धार करके मुझे ही ऊपर ले चल।” क्योंकि वहाँ इतना-सा स्थान भी मुझे कहीं खाली दिखाई नहीं दिया कि दूसरों के बिस्तर खूँदे बगैर तथा उनके साथ हाथापाई की सम्भावना उत्पन्न किये बगैर, मैं कहीं अपना कदम रख सकूँ। वर्षा होने पर ऊपर पानी में भीग जाऊँ यह अच्छा, किन्तु यहाँ एक क्षण-भर भी ठहरना ठीक नहीं। अधिक पैसों के लोभ से कुली, काफी कोशिश और बहस-मुबाहिसे के बाद, कम्बलों और सतरंजियों के किनारों को उलटता-पुलटता हुआ मुझे अपने साथ लिये हुए ऊपर आया और मेरा माल-असबाब दिखाकर बख्शीीश लेकर चलता बना। यहाँ का भी वही हाल- बिस्तर बिछाने के लिए, निरुपाय हो अपने ट्रंक के ऊपर ही बैठने का इन्तजाम करके मैं एकाग्र चित्त से माता भागीरथी के दोनों किनारों की महिमा का निरीक्षण करने लगा।

स्टीमर ने तब तक चलना आरम्भ कर दिया था। बहुत देर से प्यास लग रही थी। इन दो घण्टों के भीतर जो तूफान सिर पर से गुजर गया उससे जिनकी छाती शुष्क न हो जाए, ऐसे कठिन-हृदय संसार में बहुत थोड़े ही लोग हैं। किन्तु आफत यह हुई कि साथ में न तो गिलास था और न लोटा। साथ के मुसाफिरों में यदि कहीं कोई बंगाली हो तो कुछ उपाय हो कुछ उपाय हो सकता है, यह सोचकर मैं फिर बाहर निकला। नीचे उतरने के उस गङ्ढे के निकट पहुँचते ही एक तरह का विकट कोलाहल सुन पड़ा। मेरी जानकारी इतनी विस्तृत नहीं है कि उस कोलाहल की उपयुक्त तुलना कर सकूँ। गोशाला में आग देने से एक प्रकार का कोलाहल होने की बात कही जाती है जरूर, किन्तु, इसके अनुरूप कोलाहल होने के लिए जितनी बड़ी गोशाला की आवश्यकता है उतनी बड़ी गोशाला महाभारत के युग में विराट राजा के यहाँ यदि रही तो जुदा बात है, किन्तु इस कलिकाल में किसी के यहाँ हो सकती है, इसकी तो कल्पना करना भी कठिन है।

भयपूर्ण हृदय से दो-एक सीढ़ियाँ उतरकर मैंने झाँका तो देखा कि यात्रियों ने अपना अपना 'नेशनल' (=जातीय) संगीत शुरू कर दिया है। काबुल से लेकर ब्रह्मपुत्र और कन्याकुमारी से लेकर चीन की सीमापर्यन्त जितने भी तरह के स्वर ब्रह्म हैं, जहाज के इस बन्द गर्भ के भीतर वाद्ययन्त्रों के सहयोग से, उनका ही समवेत रूप से अनुशीलन हो रहा है। ऐसे महासंगीत को सुनने का सौभाग्य कदाचित् ही संघटित होता है; और संगीत ही ललित कलाओं में सर्वश्रेष्ठ है, यह बात उस जगह खड़े-खड़े ही मैंने सम्मान के साथ स्वीकार कर ली। किन्तु सबसे अधिक विस्मय की बात यह थी कि वहाँ इतने अधिक संगीत-विशारद एक साथ आ जुटे किस तरह?

मैं एकाएक यह स्थिर नहीं कर सका कि मेरा नीचे उतरना उचित है या नहीं। सुना है, अंगरेजी महाकवि शेक्सपियर ने कहा है कि संगीत के द्वारा जो मनुष्य मुग्ध नहीं होता वह खून तक कर सकता है। किन्तु केवल मिनट भर सुन लेने से ही जो मनुष्य के खून को जमा दे ऐसे संगीत की खबर शायद उन्हें भी नहीं थी। जहाज का गर्भ-गृह वीणापाणि का पीठ-स्थान है या नहीं, सो नहीं, सो नहीं जानता परन्तु, यदि न होता तो यह कौन सोच सकता कि काबुली लोग भी गाना गाते हैं!

   0
0 Comments